स्वार्थियों की सलाह में आ निज वंश डुबाना ना चहिए.
बाप बना गैरों को नस्ल अस्ली को मिटाना ना चहिए॥
जाति बदलकर शुद्ध खून दागले कहाना ना चहिए.
बहुत हजम करने को फिरें फन्दे में फंसाना ना चहिए॥
सदा सताते रहे जाति को, उनमें मिलाना ना चहिए.
छूत-छात के छल में आकर जाति छिपाना ना चहिए॥
ऊँच-नीच के भय से भीत मन निबल बनाना ना चहिए.
अपने पांव पर होके खड़े बिल्कुल भय खाना ना चहिए॥
क़दम बढ़कर आगे फिर, पीछे न हटाना ना चहिए.
शूर-वीर प्राचीन हिंद के, फिर डर जाना ना चहिए॥
गैर कौम कहें लाख जतन से, मन पिघलाना ना चहिए.
खुदगर्जी में फंसकर अपना सत्य डिगाना ना चहिए॥
अपने जाति-नेताओं से तो, मन को फिराना ना चहिए.
घुटने पेट ओर झुकते हैं, इसे भुलाना ना चहिए॥
ऊँचे पद पाने को क्या संतान पढ़ाना ना चहिए?
करके जाति-सभा जलसे क्या जाति जगाना ना चहिए?
गये गिराये ‘हरिहर’ जिनसे क्या उन्हें हराना ना चहिए?
बैर-बपौती बदले उन्हें क्या मजा चखाना ना चहिए?

शैर-

चले गर सभा के नियमों पर, तो फिर यह जाति जग जावे।
उठी “हरिहर” बहुत कौमें, यों चलकर कोई अजमावे॥

By shayar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *