कवि कोविद के कर्म यहि देवहिं भुले न ज्ञान।
पाय सीख शुभ छोड़दें सब कुपंथ की बान।।1

आज कल जौ ह्वै रहा अरु देखत सब लोग।
करें चलें सब धर्म तज जो नहिं उनके योग।।2

कहिहों मति अनुसार मैं नहिं करिहों पछिपाति।
पढ़हिं पद्य चेतहिं धरम हिंदू मुस्लिम जाति।।3

अनखैहैं दुर्जन लेख पढ़ सुजन पढ़हिं हर्षाय।
हंस चुगें मोती सदा बायस बिष्‍टा खाय।।4

तिनकर भय नहि मोहिं कछु ईश्‍वर मोर सहाय।
सत्‍य अटल रहिहै जगत झूठ नर दहा जाय।।5

धर्म धर्म सब कहि रहे कहिं नहिं देखहु कर्म।
धर्म कर्म छोड़े फिरें कहत न आवै शर्म।।6

धर्म कर्म पहले रहे धर्म प्राण के साथ।
अब बालक कलि काल के ऐना ककही हाथ।।7

जो सिंगार तिरिया करें पहले युग में भाय।
सोइय रीति पुरुषन गही अपने मुँह मसिलाय।।8

सकल चिह्न निज धरम के दीन्‍हे सबै मुड़ाय।
हिंदू मुस्लिम और जन केहि विधि चीन्‍हे जाँय।। 9

सत्‍युग त्रेता अरु द्वापर में नहिं मेटै नर चीन्‍ह।
धन्‍यवाद कलिकाल को नारि रूप कर दीन्‍ह।।10

नई नई रीतें धर्म तज चल गईं कलयुग बीच।
एक प्रथा ऐसी चली नहिं ऊँचा कोइ नीच।।11

धर्म ग्रंथ में जो लिख्‍यो सो नहिं झूठे होंय।
महा प्रलय के चिन्‍ह सब दिन दिन दूने होंय।।12

यूरुप का व्‍यवहार लख दीन्‍हीं पद्धति खोय।
हंस वंश वायस भजे धर्म बृद्धि किमि होय।।13

अब कलिकाल के वश परी भारत केरि समाज।
हे जगदीश सहाय कर बूड़यो धरम जहाज।।14

नीच कर्म अब तजहु सब धरहु धर्म पर ध्‍यान।
नेम धर्म आचार से जपहु हृदय भगवान।।15

चेतहु भारति वीरगण तुम तौ चतुर सुजान।
देवहु बंधु सीख शुभ यही कहत रहमान।।16

By shayar

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