कभी है महवेदीद ऐसे समझ बाक़ी नहीं रहती।
कभी दीदार से महरूम है इतना समझते हैं॥
यही थोड़ी-सी मय है और यही छोटा-सा पैमाना।
इसी से रिन्द राज़े-गुम्बदे-मीना समझते हैं॥
कभी तो जुस्तजू जलवे की भी परदा बताती है।
कभी हम शौक़ में परदे को भी जलवा समझते हैं॥
यह ज़ौके़दीद की शोखी़, वो अक्से-रंगे-महबूबी।
न जलवा है न परदा, हम उसे तनहा समझते हैं॥