हाँ, सारथे ! रथ रोक दो, विश्राम दो कुछ अश्व को
यह कुंज था आनन्द-दायक, इस हृदय के विश्व को
यह भूमि है उस भक्त की आराधना की साधिका
जिसको न था कुछ भय यहाँ भवजन्य आधि व्याधि का

जब था न कुछ परिचित सुधा से हृदय वन-सा था बना
तब देखकर इस कुंज को कुसुमित हुआ था वह घना
बरसा दिया मकरन्द की झीनी झड़ी उल्लास से
सुरभित हुआ संसार ही इस कुसुम के सुविकास से

जब दौड़ जीवन-मार्ग में पहली हमारी थी हुई
उच्छ्वासमय तटिनी-तरंगों के सदृश बढ़ती गई
था लक्ष्यहीन नवीन वर्षा के पवन-सा वेग में
इस कुंज ही में रूक गया था उस प्रबल उद्वेग में

जन्मान्तर-स्मृति याद कर औ’ भूलकर निज चौकड़ी
मन-मृग रूका गर्दन झुकाकर छोड़कर तेजी बड़ी
अज्ञात से पदचिन्ह का कर अनुसरण आया यहाँ
निज नाभि-सौरभ भूल फूलो का सुरस पाया यहाँ

सुख-दुःख शीतातप भुलाकर प्राण की आराधना
इस स्थान पर की थी अहो सर्वस्व ही की साधना
हे सारथे ! रथ रोक दो, स्मृति का समाधिस्थान है
हम पैर क्या, शिर से चलें, तो भी न उचित विधान

By shayar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *