प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,
अन्याय तुम्हारा कैसा?
यह इधर साधु की कुटिया जो तप कर प्राण सुखाता,
तेरी वीणा के स्वर पर दीनों में मिल-मिल जाता।

मल धोता, जीवन बोता, छोड़े आँसू का सोता,
जब जग हरियाला होता, तब वह हरियाला होता।
उसके पड़ोस में ही हा! यह हत्यारे का घर है,
जो रक्तमयी तपड़न पर करता दिन-रात गुजर है!

फिर इधर खेत गेहूँ के हँसते हैं लह-लह करते,
क्या जाने इस हँसने पर कितने किसान हैं मरते?
हरियाली के ब्रह्मापर कितनी गाली बरसेंगी?
छोटी-छोटी सन्तानें रट ’अन्न-अन्न’ तरसेंगी,

होंगे पक्वान्न किसी के उसकी इस रखवाली में
उसका यह रक्त सजेगा कुछ धनिकों की थाली में
वह भी देखेगा इस को जब आयेगा त्योहार,
उस दिन किसान की मेहनत, वह हरियाला संसार।

उसके आँसू की दुनियाँ, उसके जीवन का भार,
पंडित हो या कि कसाई, राजा हो या कि चमार,
सबकी थाली का होगा उसका गेहूँ श्रृंगार।
प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,
अन्याय तुम्हारा कैसा?

फिर नभ की ये चमकी-सी छोटी-छोटी लटकनियाँ
निशि की साड़ी की कनियाँ प्रभु की ये बिखरी मनियाँ।
अपने प्रकाश का प्यारा ये खोले हुए खजाना,
बह पड़े कहीं इनको तो जीवन भर है बिखराना।

झाँको वे देख पड़ेंगे, ग्वालों की झोपड़ियों पर,
ताको, वे देख पड़ेंगे, विद्वानों की मढ़ियों पर!
उनके दर्शन होते हैं, देवालय द्वारों पर भी,
पर हा वे लटक रहे हैं इन कारागारों पर भी!

फिर वे दाखों की बेलें जिनसे पंछी दल खेलें
जी में मधुराई लाने, वर्षा हिम आतप झेलें!
इनकी गोदी के धन हैं मणियों से होड़ लगाते
ये रस से पूरे मोती, किसका जी नहीं चुराते!

किसकी जागीरी है यह, इनकी मीठी तरुणाई
किसका गुण गाने इनमें चिड़ियों की सेना आई?
बीमारों की तश्तरियों में ये जीवन देते हैं,
चूसे जाते हैं ये, पर नव अपनापन देते हैं!

वैद्यों के आसव बन कर धमनी में गति पहुँचाते,
पर हा, उनको ही घातक मदिरा बनवाकर पाते!
या धन लोलुप ऐयाशों के, भोगों की थाली को
दाखों से भरते पाते धन के लोभी माली को!
प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,
अन्याय तुम्हारा कैसा?

By shayar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *