धरती बोल रही है–धीरे धीरे धीरे मेरे राजा,
मेरा छेद कलेजा हल से फिर दाना बन स्वयं समा जा।
माटी में मिल जा ओ मालिक,
माँद बना ले गिरि गह्वर में,
एक दहाड़, करोड़ गुनी हो,
गूँजे नभ की लहर लहर में।
हरी हरी दुनियाँ के स्वामी, लाल अँगारों के कमलापति,
मुट्ठी भर हड्डियाँ? नहीं, यह जग की हल-चल तेरी सम्पति।
रे इतिहास, फेंक सत्तावन वाली वह तलवार पुरानी,
आज गरीबी की ज्वालामय साँसों पर चढ़ने दे पानी।

उत्सव क्या? सूली पर चढ़ना; क्या त्योहार? मौत की बेला!
खेला कौन? अरे प्रलयंकर, तू अपने परिजन से खेला।
नेता-अनुयायी का रौरव,
वक्ता-श्रोता का यह रोना।
ओ युग! तेरे हाथों देने,
आये मूरख चन्द्र-खिलौना।
तेरे घिसते दाँतों की मचमची, गठानें खोल रही है,
धीरे-धीरे मेरे राजा, तुझसे धरती बोल रही है।

By shayar

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