कुछ हाथ उठाके मांग न कुछ हाथ उठाके देख।
फिर अख़्तियार ख़ातिरे-बेमुद्दआके देख॥

तज़हीको-इल्तफ़ात में रहने दे इम्तयाज़
यूँ मुस्करा न देख के, हाँ मुसकरा के देख॥

तू हुस्न की नज़र को समझता है बेपनाह।
अपनी निगाह को भी कभी आज़मा के देख॥

परदे तमाम उठाके न मायूसे-जलवा हो।
उठ और अपने दिल की भी चिलमन उठा के देख॥

By shayar

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