खुला ये उन के अंदाज़-ए-बयाँ से
मुरव्वत उठ गई सारे जहाँ से

मुझे वो रंज दें या रहम खाएँ
करूँ उन की शिकायत किस ज़बाँ से

रह-ए-महबूब में अल्लाह रे शौक़
क़दम रखता हूँ आगे कारवाँ से

जहाँ में है वही तक़दीर वाला
सलामत जो रहा तेरी ज़बाँ से

किसी का पास-ए-रूसवाई कहाँ तक
गला घुटने लगा ज़ब्त-ए-फुग़ाँ से

अदम का हाल आखिर किस से पूछें
कोई उठता भी हो ख़्वाब-ए-गिराँ से

‘रशीद’ अब तर्क-ए-मिल्लत कीजिए आप
नहीं कुछ फ़ाएदा अहल-ए-जहाँ से

By shayar

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