उमीदे-मर्ग कब तक
‍ज़ि‍न्दगी का दर्दे-सर कब तक
ये माना सब्र करते हैं महब्बत में
मगर कब तक

दयारे दोस्त हद होती है
यूँ भी दिल बहलने की
न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक

यॅ तदबीरें भी तक़दीरे-
महब्बबत बन नहीं सकतीं
किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक

इनायत की करम की लुत्फ़ की
आख़ि‍र कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-जख्‍़मे ज़िगर कब तक

किसी का हुस्नर रूसवा
हो गया पर्दे ही पर्दे में
न लाये रंग आख़िरकार ता‍सीरे-
               नज़र कब तक

By shayar

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