गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे ।
हम रात को ख़ुर्शीद में ज़म होने न देंगे ।
ये दर्द तो आराम-ए-दो-आलम से सिवा है,
ऐ दोस्त तिरे दर्द को कम होने न देंगे ।
मफ़्हूम बदल जाएगा तस्लीम-ओ-रज़ा का,
अब हम सर-ए-तस्लीम को ख़म होने ने देंगे ।
सरसर को सिखाएँगे लताफ़त का क़रीना,
फूलों पर हवाओं के सितम होने न देंगे ।
ऐ कातिब-ए-तक़दीर हमारी भी रज़ा पूछ,
यँ नाला-ए-तक़दीर रक़म होने न देंगे ।
जब तक है दिल-ए-ज़ार में इक क़तरा-ए-ख़ूँ भी,
कम-मर्तबा-ए-लौह-ओ-क़लम होने न देंगे ।
जो ज़िन्दा ओ हस्सास बुतों की है अमानत,
उस सज्दे को हम नज़्र-ए-हरम होने न देंगे ।
उठ जाएँगे जूँ बाद-ए-सबा बज़्म से तेरी,
तुझ को भी ख़बर तेरी क़सम होने न देंगे ।
लाखों का सहारा है यही जाम-ए-सिफ़ाली,
साग़र को कभी साग़र-ए-जम होने न देंगे।