हादसे क्या क्या तुम्हारी बेरुख़ी से हो गए ।
सारी दुनिया के लिए हम अजनबी से हो गए ।
गर्दिशे दौरां, ज़माने की नज़र, आँखों की नींद,
कितने दुश्मन एक रस्म-ए-दोस्ती से हो गए ।
कुछ तुम्हारे गेसुओं की बरहमीं ने कर दिया
कुछ अन्धेरे मेरे घर में रोशनी से हो गए ।
यूँ तो हम आगाह थे सैयाद की तदबीर से,
हम असीर-ए-दामे-गुल अपनी खुदी से हो गए ।
हर क़दम ‘सागर’ नज़र आने लगी हैं मंज़िलें
मरहले तय मेरी कुछ आवारगी से हो गए ।