कौन है गुलशन कि जिस गुलशन में रौशन तू नहीं।
कौन है वो गुल कि जिस गुल में तेरी ख़ुशबू नहीं।
तू है लैला तू ही शीरीं हजरत-ए-युसूफ भी तू ही,
कौन है आशिक जो तेरे इश्क़ पर मजनूँ नहीं है।
अब जिलाना या मारना भी तेरा एक तमाशा है,
क्यों न फिर बेख़ौफ़ हाथों में तेरे दिल दूँ नहीं।
नासमझ था तब ये ख्वाहिश थी कि समझूं तुझे,
जब समझ आई तो समझा कि कुछ समझा नहीं।
‘बिन्दु’ कहता है कि मैं जब ज़ुदा दरिया से हूँ,
मिल गया दरिया में फिर कहता है कि कुछ भी नहीं हूँ॥

By shayar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *