ख़ुदा को ढूँढ़ रहा था कहीं ख़ुदा न मिला
ज़हे-नसीब कि बन्दे को मुद्दआ’ न मिला

निगाह-ए-शौक़ में बे-नूरियों का रंग बढ़ा
निगाह-ए-शौक़ को जब कोई दूसरा न मिला

हम अपनी बे-ख़ुदी-ए-शौक़ पर निसार रहे
ख़ुदी को ढूँढ़ लिया जब हमें ख़ुदा न मिला

तुम्हारी बज़्म में लब खोल कर हुआ ख़ामोश
वो बद-नसीब जिसे कोई आसरा न मिला

हर एक ज़र्रे में मैं ख़ुद तो आ रहा था नज़र
अजीब बात तुम्हारा कहीं पता न मिला

बस इक सुकून ही हम को न मिल सका ता-उम्र
वगरना तेरे तसद्दुक़ में हम को क्या न मिला

तिरी निगाह-ए-मोहब्बत-नवाज़ ही की क़सम
कि आज तक तो हमें तुझ सा दूसरा न मिला

तिरा जमाल फ़ज़ाओं में मुंतशिर था मगर
निगाह-ए-शौक़ को फिर भी तिरा पता न मिला

हज़ार ठोकरें खाईं हज़ार सू ‘बहज़ाद’
जहान-ए-हुस्न में कोई भी बा-वफ़ा न मिला

By shayar

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