हाँ ग़ैरते-ख़ुर्शीद हैं और रश्क़े-क़मर आप
माहौल चमक उठता है जाते हैं जिधर आप

क़ायम रहे, दायम रहे ये हुस्न का आलम
देखें न कभी शामे-जवानी की सहर आप

ये दिन भी दिखाये हैं मुझे बख़्ते-ज़बूं ने
करने लगे रातें बसर अब ग़ैर के घर आप

क्या मर के भी अब जीने न देंगे मुझे ऐदा
क्यों आये मिरी गोर पे बा-दीदाए-तर आप

आख़िर कोई हद भी है ‘वफ़ा’ बुलअजबी की
रखते हैं शबे-हिज्र में उम्मीदे-सहर आप।

By shayar

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