ज़बाने बे-ज़बानी से हदीसे-ग़म भी कहते हैं
सुनो ऐ सुनने वालों हां सुनो कुछ हम भी कहते हैं

उन्हें ताज़ा बिनाए-शिकवा पैदा हो ही जाती है
जो हम कुछ बर-बिनाए शिकवाए-बाहम भी कहते हैं

हमें अज़बर हज़ारों दास्तानें हैं ज़माने की
सुने कोई तो अपनी दास्ताने-ग़म भी कहते हैं

दहाने-जख़्म ही फ़रयाद-आमादा नहीं ज़ालिम
ज़बाने-हाल से कुछ दीदाए-पुर हम भी कहते हैं

न कर पीरे-मुगां की शान में ऐ शैख़ गुस्ताख़ी
इन्हीं को कहने वाले क़िबला-ए-आलम भी कहते हैं

नहीं कहने को हाज़त ऐ ‘वफ़ा’ ज़िन्हार मौसम की
कि हम कहने पर आ जाएं तो बे-मौसम भी कहते हैं।

By shayar

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