सुनें हंस हंस के जिन को सुनने वाले और होते हैं
मिरी जां और होते हैं वो नाले और होते हैं
चिराग़े आख़िरे-शब के संभाले और होते हैं
तिरे बीमारे-फुरकत के संभाले और होते हैं
वफ़ा करके पशेमां ऐ जफ़ा-जू हम नहीं होते
वफ़ा करके पशेमां होने वाले और होते हैं
हरीफ़े-रूए-रंगी दिलकशी में ज़ुल्फ़े-मुशकीं है
जो दब जाते हैं गोरों से वो काले और होते हैं
भला होता है बद-गोई से तेरा वा’ज़ ए वाइज़
फ़क़त दो चार कुआं के हवाले और होते हैं
जियां करना है जी की रूठना ऐ संग दिल तुझ से
वो जिन को रूठ कर कोई मना ले और होते हैं
ज़माने की नज़र में इक अदा है ज़ुल्म भी तेरा
ज़माना जिन से बदला ज़ुल्म का ले और होता हैं
मरीज़े-ग़म में अब उनके सिवा रक्खा नहीं कुछ भी
जो वक़्ते-नज़्अ के दो इक संभाले और होते हैं
तवक़्क़ओ ज़ब्ते-राज़े-इश्क़ की ‘मंसूर’ ऐसों से
पड़े रहते हैं जिन के लब पे ताले और होते हैं
शिफायाबी की सूरत ऐ ‘वफ़ा’ हो भी तो कैसे हो
लबालब फूटने से दिल के छाले और होते हैं।