ग़म-दीदा हूँ, अलम-ज़दा हूँ, सोगवार हूँ
इक चलता फिरता आरज़ूओं का मज़ार हूँ
कहते हैं इस को सब्र मगर असलियत है ये
करता हूँ दिल पे जब्र कि बे-इख़्तियार हूँ
इक वो खिज़ां भी जिन की सरापा बहार है
इक मैं बहार में भी जो नंगे-बहार हूँ
बा-ख़ातिरे-तपीदा वा बा-चश्मे-अश्कबार
दिन रात शाकी-ए-सितमे-रोज़गार हूँ
आख़िर ये ऐ ‘वफ़ा’ है सज़ा किस गुनाह की
क्यों ना-सज़ाए-रहमते-परवरदिगार हूँ।