चंगो-रबाब से न मये-ख़ुशगवार से
लुत्फ़े-बहार है उसी जाने बहार से

हंगामे-सैर चलते हो बच कर मज़ार से
इतनी कदूरतें मिरी मुश्ते-ग़ुबार से

मामूर हो रही है फ़ज़ा क्यों ग़ुबार से
किस को उठा रहे हैं तिरी रहगुज़ार से

लाने लगी हैं रंग मिरी बे-करारियां
आने लगे हैं वो भी नज़र बे-क़रार से

छोड़ा न आसमां ने निशाने-मज़ार तक
ज़ालिम को लॉग था मिरे मुश्ते-ग़ुबार से

देखें तो किस को है सरे फ़रयाद हश्र में
तुम सब को देख लो निगह-ए-शर्मशार से

आंखों में बस रही है किसी की बहारे-हुस्न
तस्कीन क्या हो जलवा-ए-हुस्ने-बहार से

बैठे हैं आस रख के तिरे इल्तिफ़ात की
उट्ठेंगे ख़ाक हो के तिरी रहगुज़ार से

टूटी न आस वादा-ए-फ़र्दा की ऐ ‘वफ़ा’
छूटी न जान कश्मकशे-इंतिज़ार से।

By shayar

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