जोबन टपक रहा है गुलो-बर्गो-बार से
गुलशन में ये बहार है किस की बहार से

बेबस हूँ इश्तियाके-दिल-बे-क़रार से
अब लाश ही उठेगी मिरी कूए-यार से

इतनी ही बढ़ रही है अदू की शबे-विसाल
घबराऊँ क्यों न तूले-शबे-इंतज़ार से

लग़जिश न आ सकी मिरे ईमाने-इश्क़ में
का’बा मुझे न खींच सका कूए-यार से

बेगानाए-खिरद नहीं दीवानगी मिरी
दामन को सी रहा हूँ ग़रेबाँ के तार से

एहसान है ये मुझ पे ग़मे-इश्क़े-यार का
महफ़ूज़ ऐ ‘वफ़ा’ हूँ ग़मे-रोज़गार से।

By shayar

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