इल्तिफ़ात-ए-आम है वज्ह-ए-परेशानी मुझे
किस क़दर महँगी पड़ी है उन की अर्ज़ानी मुझे

बहर-ए-हस्ती है मिरी नज़रों में इक दश्त-ए-सराब
रेत का होता है धोका देख कर पानी मुझे

तेरे जल्वों का तो हर इक ज़र्रा है आईना-दार
माने’-ए-नज़्ज़ारा है ख़ुद मेरी हैरानी मुझे

सई-ए-बे-हासिल थी दिल की कोशिश-ए-इख़्फ़ा-ए-राज़
कर गई रुस्वा निगाहों की परेशानी मुझे

या अदू-ए-बुल-हवस की नाज़-बरदारी करो
या बना लो तख़्ता-ए-मश्क़-ए-सितम-रानी मुझे

खुल नहीं सकती फ़क़त इक आप के दिल की गिरह
वर्ना क्या क्या गुत्थियाँ आती हैं सुलझानी मुझे

किस क़दर ना-पैद हैं अहल-ए-कमाल अब ऐ ‘वफ़ा’
कोई अपना भी नज़र आता नहीं सानी मुझे।

By shayar

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