महब्बत भी हुआ करती है दिल भी दिल से मिलता है
मगर फिर आदमी को आदमी मुश्किल से मिलता है

महब्बत जब मज़ा देती है दिल जब दिल से मिलता है
मगर मुश्किल यही है दिल से दिल मुश्किल से मिलता है

सिवाए यास क्या इस सई-ए-बे-हासिल से मिलता है
तिरा दिल ओ सितमगर कब किसी के दिल से मिलता है

अजब रिक़्क़त-फ़ज़ा है आख़िरी मिलने का नज़्ज़ारा
गले लग लग के बिस्मिल ख़ंजर-ए-क़ातिल से मिलता है

सरा-ए-दहर में ताँता बँधा है कारवानों का
अदम का ऐ ‘वफ़ा’ रस्ता इसी मंज़िल से मिलता है।

By shayar

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