हो तो हो सूरते-क़रार, ऐ दिले-बेक़रारी क्या
वादे तो अब भी हैं मगर, वादों का ऐतबार क्या
ग़म-कदाए हयात में, और निशाते-कर क्या
जान का ऐतबार क्या, मौत पर इख़्तियार क्या
देखी हैं ग़म की शिद्दतें, देखा है ख़ूने-आरज़ू
और दिखाए देखिए, गर्दिश-रूज़गार क्या
क्या मिटे दिल के वलवले, हस्तीए-दिल ही मिट गई
और मिटाएगा हमें चरख़े-सितम-शआर क्या
हम को गरज़ बहार से हमसे गरज़ बहार को
कुंजे-क़फ़स में छेड़िये, जमजमाए बहार क्या
मरने की ठान ली तो अब, मौत से ख़ुद उलझ पड़ें
कायरों की तरह करें, मौत का इतंज़ार क्या
मुझ को तो ऐतबार ही, करना है और करूँगा भी
अपनी क़सम का है मगर, तुम को भी ऐतबार क्या
झांक रहा हूँ बार बार, पर्दाए-कायनात में
देख रहा हूँ ग़ैब से, होता है आशाकार क्या
राम अगर न हो सका उस बुते-बेवफ़ा का दिल
अपने भेज दिल पर ऐ ‘वफ़ा’ तुझ को है इंतज़ार क्या।