इलाही किस क़ियामत के मिरे नाले रसा निकले
तहे-तहतुस्सरा पहुंचे सरे-फ़ौक़स्समा निकले

बवक़्ते-गिरया पासे-इजतिराबे-क़ल्ब लाज़िम है
जो आंसू आंख से निकले तड़पता लौटता निकले

कभी पर्दे में रह सकती नहीं शुहरत हसीनों की
जो पर्दे में रहा करते थे आलम-आश्ना निकले

बना कर इक ठिकाना रह सके कब तेरे दीवाने
कभज बस्ती में आ धमके, कभी सहारा में जा निकले

ख़ुशी की इंतिहा से है मुझे उल्टी परेशानी
ख़ुशी की इंतिहा डर है न ग़म की इब्तिदा निकले

महब्बत की है शायद ऐ ‘वफ़ा’ इक ये भी मजबूरी
भरे हों दिल में तो शिकवे मगर मुंह से दुआ निकले।

By shayar

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