हिज्र की भी रात बसर हो गई
हो तो न सकती थी सहर हो गई

आइना है पेशे-नज़र रात दिन
तुम को तुम्हारी ही नज़र हो गई

मेरी अयादत को ये कौन आ गया
सब की नज़र जानिब-दर हो गई

देर मिरी जान के जाने की थी
जान गई और सहर हो गई

वक़्फ़े-मुसीबत रहे हम उम्र भर
उम्र मुसीबत में बसर हो गई

हाले-ज़बूं देख के मेरा ‘वफ़ा’
कौन सी आंख आज न तर हो गई।

By shayar

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