नाला-ए-दिल रसा नहीं होता
राम वो दिलरुबा नहीं होता

तू वफ़ा-आश्ना नहीं होता
वरना दुनिया में क्या नहीं होता

जब न होता था ग़म जुदा दिल से
ग़म से अब दिल जुदा नहीं होता

दिल है उस दर्द का तमन्नाई
चारा जिस दर्द का नहीं होता

जब वो बुत क़हर नाक होता है
फिर ख़ुदा भी ख़ुदा नहीं होता

एहले-ज़र बा-ख़ुदा नहीं होता
बे-ज़रों का ख़ुदा नहीं होता

शबे-तीरा ही क्यों हुई बदनाम
रोज़े-रौशन में क्या नहीं होता

किस ज़माने में क्या न होता था
किस ज़माने में क्या नहीं होता

इश्क़ ज़ूद-एतिमाद होता है
हुस्न ज़ूद-आश्ना नहीं होता

मेहरबाँ पा के भी ‘वफ़ा’ उन को
हर्फे-मतलब अदा नहीं होता।

By shayar

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