तुम जो सुथरे पथ उतरे हो,
सुमन खिले, पराग बिखरे, ओ!

ज्योतिश्छाय केश-मुख वाली,
तरुणी की सकरुण कलिका ली,
अधर-उरोज-सरोज-वनाली,
अश्रु-ओस की भेंट भरे हो।

पवन-मन्द-मृदु-गन्ध प्रवाहित,
मधु-मकरन्द, सुमन-सर-गाहित,
छन्द-छन्द सरि-तरि उत्साहित,
अवनि-अनिल-अम्बर संवरे हो।

स्वर्ण-रेणु के उदयाचल-रवि,
दुपहर के खरतर ज्योतिशछवि,
हे उर-उर के मुखर-मधुर कवि,
निःस्व विश्व को तुम्हीं वरे हो।

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