वे कह जो गये कल आने को,
सखि, बीत गये कितने कल्पों।
खग-पांख-मढी मृग-आँख लगी,
अनुराग जगी दुख के तल्पों।
उनकी जो रही, बस की न कही,
रस की रसना अशना न रही,
विपरीत की टेक न एक सही,
दिन बीत चले अल्पों-अल्पों।
उनकी जय उर-उर भय भसका,
उनके मग में जग-जय मसका,
उनके डग से कुल क्षय धसका,
पर दरस गये जल्पों-जल्पों।