पतित हुआ हूँ भव से तार;
दुस्तर दव से कर उद्धार।

तू इंगित से विश्व अपरिमित
रच-रचकर करती है अवसित
किस काया से किस छायाश्रित,
मैं बस होता हूँ बलिहार।

समझ में न आया तेरा कर
भर देगा या ले लेगा हर,
सीस झुकाकर उन चरणों पर
रहता हूँ भय से इस पार।

रुक जाती है वाणी मेरी,
दिखती है नादानी मेरी,
फिर भी मति दीवानी मेरी
कहती है, तू ठेक उतार।

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