गहन है यह अण्ध कारा;
स्वार्थ के अवगुण्ठनों से
हुआ है लुण्ठन हमारा ।
खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते हैं लोग ज्यों मुँह फेरकर,
इस गगन में नहीं दिनकर,
नहीं शशधर, नहीं तारा ।
कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नहीं आता समझ में,
कहाँ है श्यामल किनारा ।
प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता-फिरता, न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा ।