गाता खग प्रातः उठकर—
सुन्दर, सुखमय जग-जीवन!
गाता खग सन्ध्या-तट पर—
मंगल, मधुमय जग-जीवन!
कहती अपलक तारावलि
अपनी आँखों का अनुभव,–
अवलोक आँख आँसू की
भर आतीं आँखें नीरव!
हँसमुख प्रसून सिखलाते
पल भर है, जो हँस पाओ,
अपने उर की सौरभ से
जग का आँगन भर जाओ।
उठ-उठ लहरें कहतीं यह
हम कूल विलोक न पावें,
पर इस उमंग में बह-बह
नित आगे बढ़ती जावें।
कँप-कँप हिलोर रह जाती—
रे मिलता नहीं किनारा!
बुद्बुद् विलीन हो चुपके
पा जाता आशय सारा।
रचनाकाल: जनवरी, १९३२