ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी वहाँ के बाग़ों में मस्‍ताना हवाएँ आती हैं ?
क्‍या अब भी वहाँ के परबत पर घनघोर घटाएँ छाती हैं ?
क्‍या अब भी वहाँ की बरखाएँ वैसे ही दिलों को भाती हैं ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी वतन में वैसे ही सरमस्‍त नज़ारे होते हैं ?
क्‍या अब भी सुहानी रातों को वो चान्द-सितारे होते हैं ?
हम खेल जो खेला करते थे अब भी वो सारे होते हैं ?

ओ देस से आने वाले बता !
शादाबो-शिगुफ़्ता फूलों से मा’मूर हैं गुलज़ार अब कि नहीं ?
बाज़ार में मालन लाती है फूलों के गुँथे हार अब कि नहीं ?
और शौक से टूटे पड़ते है नौउम्र ख़रीदार अब कि नहीं ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या शाम पड़े गलियों में वही दिलचस्‍प अन्धेरा होता है ?
और सड़कों की धुन्दली शम्‍मओं पर सायों का बसेरा होता है ?
बाग़ों की घनेरी शाखों पर जिस तरह सवेरा होता है ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी वहाँ वैसी ही जवाँ और मदभरी रातें होती हैं ?
क्‍या रात भर अब भी गीतों की और प्‍यार की बाते होती हैं ?
वो हुस्‍न के जादू चलते हैं वो इश्‍क़ की घातें होती हैं ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी महकते मन्दिर से नाक़ूस की आवाज़ आती है ?
क्‍या अब भी मुक़द्दस मस्जिद पर मस्‍ताना अज़ाँ थर्राती है ?
और शाम के रँगी सायों पर अ़ज़्मत की झलक छा जाती है ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी वहाँ के पनघट पर पनहारियाँ पानी भरती हैं ?
अँगड़ाई का नक़्शा बन-बन कर सब माथे पे गागर धरती हैं ?
और अपने घरों को जाते हुए हँसती हुई चुहलें करती है ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी वहाँ मेलों में वही बरसात का जोबन होता है ?
फैले हुए बड़ की शाखों में झूलों का निशेमन होता है ?
उमड़े हुए बादल होते हैं छाया हुआ सावन होता है ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या शहर के गिर्द अब भी है रवाँ दरिया-ए-हसीं लहराए हुए ?
ज्यूँ गोद में अपने मन को लिए नागन हो कोई थर्राए हुए ?
या नूर की हँसली हूर की गर्दन में हो अ़याँ बल खाए हुए ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी किसी के सीने में बाक़ी है हमारी चाह ? बता
क्‍या याद हमें भी करता है अब यारों में कोई ? आह बता
ओ देश से आने वाले बता लिल्‍लाह बता, लिल्‍लाह बता

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या गाँव में अब भी वैसी ही मस्ती भरी रातें आती हैं ?
देहात में कमसिन माहवशें तालाब की जानिब जाती हैं ?
और चाँद की सादा रोशनी में रंगीन तराने गाती हैं ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी गजर-दम चरवाहे रेवड़ को चराने जाते हैं ?
और शाम के धुन्दले सायों में हमराह घरों को आते हैं ?
और अपनी रँगीली बांसुरियों में इश्‍क़ के नग्‍मे गाते हैं ?

ओ देस से आने वाले बता !
आखिर में ये हसरत है कि बता वो ग़ारते-ईमाँ कैसी है ?
बचपन में जो आफ़त ढाती थी वो आफ़ते-दौराँ  कैसी है ?
हम दोनों थे जिसके परवाने वो शम्‍मए-शबिस्‍ताँ  कैसी हैं ?

ओ देस से आने वाले बता !
क्‍या अब भी शहाबी आ़रिज़ पर गेसू-ए-सियह बल खाते हैं ?
या बहरे-शफ़क़ की मौजों पर दो नाग पड़े लहराते हैं ?
और जिनकी झलक से सावन की रातों के से सपने आते हैं ?

ओ देस से आने वाले बता !
अब नामे-खुदा, होगी वो जवाँ मैके में है या ससुराल गई ?
दोशीज़ा है या आफ़त में उसे कमबख़्त जवानी डाल गई ?
घर पर ही रही या घर से गई, ख़ुशहाल रही ख़ुशहाल गई ?
ओ देस से आने वाले बता !

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