भावी पत्नी के प्रति
प्रिये, प्राणों की प्राण!
न जाने किस गृह में अनजान
छिपी हो तुम, स्वर्गीय-विधान!
नवल-कलिकाओं की-सी वाण,
बाल-रति-सी अनुपम, असमान–
न जाने, कौन, कहाँ, अनजान,
प्रिये, प्राणों की प्राण!
जननि-अंचल में झूल सकाल
मृदुल उर-कम्पन-सी वपुमान;
स्नेह-सुख में बढ़ सखि! चिरकाल
दीप की अकलुष-शिखा समान;
कौन सा आलय, नगर विशाल
कर रही तुम दीपित, द्युतिमान?
शलभ-चंचल मेरे मन-प्राण;
प्रिये, प्राणों की प्राण!
नवल मधुऋत-निकुंज में प्रात
प्रथम-कलिका-सी अस्फुट गात,
नील नभ-अन्तःपुर में, तन्वि!
दूज की कला सदृश नवजात;
मधुरता, मृदुता-सी तुम, प्राण!
न जिसका स्वाद-स्पर्श कुछ ज्ञात;
कल्पना हो, जाने, परिमाण?
प्रिये, प्राणों की प्राण!
हृदय के पलकों में गति-हीन
स्वप्न-संसृति-सी सुखमाकार;
बाल-भावुकता बीच नवीन
परी-सी धरती रूप अपार;
झूलती उर में आज, किशोरि!
तुम्हारी मधुर-मूर्त्ति छबिमान,
लाज में लिपटी उषा-समान,
प्रिये, प्राणों की प्राण!
मुकुल-मधुपों का मृदु मधुमास,
स्वर्ण सुख, श्री, सौरभ का सार,
मनोभावों का मधुर-विलास,
विश्व-सुखमा ही का संसार
दृगों में छा जाता सोल्लास
व्योम-बाला का शरदाकाश;
तुम्हारा आता जब प्रिय ध्यान,
प्रिये, प्राणों की प्राण!
अरुण-अधरों की पल्लव-प्रात,
मोतियों-सा हिलता-हिम-हास;
इन्द्रधनुषी-पट से ढँक गात
बाल-विद्युत का पावस-लास,
हॄदय में खिल उठता तत्काल
अधखिले-अंगों का मधुमास,
तुम्हारी छबि का कर अनुमान
प्रिये, प्राणों की प्राण!
खेल सस्मित-सखियों के साथ
सरल शैशव सी तुम साकार,
लोल, कोमल लहरों में लीन
लहर ही-सी कोमल, लघु-भार,
सहज करती होगी, सुकुमारि!
मनोभावों से बाल-विहार
हंसिनी-सी सर में कल-तान
प्रिये, प्राणों की प्राण!
खोल सौरभ का मृदु कच-जाल
सूँघता होगा अनिल समोद,
सीखते होंगे उड़ खग-बाल
तुम्हीं से कलरव, केलि, विनोद;
चूम लघु-पद-चंचलता, प्राण!
फूटते होंगे नव जल-स्रोत,
मुकुल बनती होगी मुसकान,
प्रिये, प्राणों की प्राण!
मृदूर्मिल-सरसी में सुकुमार
अधोमुख अरुण-सरोज समान,
मुग्ध-कवि के उर के छू तार
प्रणय का-सा नव-गान;
तुम्हारे शैशव में, सोभार;
पा रहा होगा यौवन प्राण;
स्वप्न-सा, विस्मय-सा अम्लान,
प्रिये, प्राणों की प्राण!
अरे वह प्रथम-मिलन अज्ञात!
विकम्पित मृदु-उर, पुलकित-गात,
सशंकित ज्योत्स्ना-सी चुप चाप,
जड़ित-पद, नमित-पलक-दृग-पात;
पास जब आ न सकोगी, प्राण!
मधुरता में-सी मरी अजान,
लाज की छुईमुई-सी म्लान,
प्रिये, प्राणों की प्राण!
सुमुखि, वह मधु-क्षण! वह मधु-बार!
धरोगी कर में कर सुकुमार!
निखिल जब नर-नारी संसार
मिलेगा नव-सुख से नव-बार;
अधर-उर में उर-अधर समान,
पुलक से पुलक, प्राण से, प्राण,
कहेंगे नीरव प्रणयाख्यान,
प्रिये, प्राणों की प्राण!
अरे, चिर-गूढ़ प्रणय आख्यान!
जब कि रुक जावेगा अनजान
साँस-सा नभ उर में पवमान,
समय निश्वल, दिशि-पलक समान;
अवनि पर झुक आवेगा, प्राण!
व्योम चिर-विस्मृति से म्रियमाण;
नील-सरसिज-सा हो-हो म्लान,
प्रिये, प्राणों की प्राण!
रचनाकाल: एप्रिल’ १९२७