तुम्हारी आँखों का आकाश,
सरल आँखों का नीलाकाश-
खो गया मेरा खग अनजान,
मृगेक्षिणि! इनमें खग अज्ञान।
देख इनका चिर करुण-प्रकाश,
अरुण-कोरों में उषा-विलास,
खोजने निकला निभृत निवास,
पलक-पल्लव-प्रच्छाय-निवास;
न जाने ले क्या क्या अभिलाष
खो गया बाल-विहग-नादान!
तुम्हारे नयनों का आकाश
सजल, श्यामल, अकूल आकाश!
गूढ़, नीरव, गम्भीर प्रसार,
न गहने को तृण का आधार;
बसाएगा कैसे संसार,
प्राण! इनमें अपना संसार!
न इसका ओर-छोर रे पार,
खो गया वह नव-पथिक अजान!

रचनाकाल: अक्टूबर’ १९२७

By shayar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *