नींद की आँख मिचोली से मज़ा लेती हैं
फेंक देते हैं किताबों को उठा लेते है

भूला भटका सा मुसाफ़िर कोई शायद मिल जाए
दो क़दम चलते हैं आवाज़ लगा देते हैं

अब्र के टुकड़ों में ख़ुर्शीद घिरा हो जैसे
कहीं कहते हैं कहीं बात छुपा लेते हैं

आँधियाँ तेज़ चलेंगी तो अँधेरा होगा
ख़ुद भी ऐसे में चरागों को बुझा लेते हैं

वरक़-ए-ज़ीस्त को रखना है सादा ‘महशर’
हाल-ए-ग़म लिखते हैं और अश्क बहा लेते हैं

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