ज़ुल्म है हुस्न को एहसास ज़रा हो जाना
क्यूँ के एहसास के मानी हैं ख़ुदा हो जाना
उन की मुख़्तार-मिज़ाजी ने किया है ऐलान
जब्र का नाम है पाबन्द-ए-वफ़ा हो जाना
आँख लगते ही वो ख़्वाबों के ख़ुदा सब को दिखाए
आँख खुलते ही मगर उन का हवा हो जाना
ख़ूब सोचा है रऊनत के परस्तारों ने
कुछ न होने से तो बेहतर है ख़ुदा हो जाना
दौर-ए-ईजाद-ओ-तरक़्की को मुबाकर ‘महशर’
राह-ज़न सीख गए राह-नुमा हो जाना