सुर्ख़ दामन में शफ़क के कोई तारा तो नहीं
हम को मुस्तक़बिल-ए-ज़र्री ने पुकारा तो नहीं

दस्त ओ पा शल हैं किनारे से लगा बैठा हूँ
लेकिन इस शोरिश-ए-तूफ़ान से हारा तो नहीं

इस ग़म-ए-दोस्त ने क्या कुछ न सितम ढाए मगर
ग़म-ए-दौराँ की तरह जान से मारा तो नहीं

दुख भरे गीतों से मामूर है क्यूँ बरबत-ए-जाँ
इस में कुछ गुरसना नज़रों का इशारा तो नहीं

अश्क जो दे न उठे लौ सर-ए-मिज़गाँ आ कर
सिर्फ़ इक क़तरा-ए-शबनम है शरारा ता ेनहीं

इक उजाला सा झलकता है पस-ए-पर्दा-ए-शब
चश्म-ए-बे-ख़्वाब में लरजाँ कोई तारा तो नहीं

कितनी उम्मीदों पे जीता रहा ‘वामिक़’ अब तक
अब मगर इक यही जीने का सहारा तो नहीं

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