ऐसी नींद आई कि फिर मौत को प्यार आ ही गया
रात भर जागने वाले को क़रार आ ही गया
ख़ाक में यूँ न मिलाना था मिरी जाँ तुम को
इक वफ़ा-दार के दिल में भी गुबार आ ही गया
याद गेसू ने तसल्ली तो बहुत दी लेकिन
सामने रात मआल-ए-दिल-ए-ज़ार आ ही गया
कुश्ता-नाज़ की मय्यत पे न आने वाला
फूल दामन में लिए सू-ए-मज़ार आ ही गया
ये बयाबाँ ये शब-ए-माह ये ख़ुनकी ये हवा
ऐ ख़िजाँ तुझ को भी अंदाज़-ए-बहार आ ही गया
आफ़रीं अश्क-ए-निदामत की दरख़्शानी को
इक सियह-कार के चेहरे पर निखार आ ही गया
बाद-ए-मंज़िल भी न महसूस हुआ मुझ को ‘शफ़ीक़’
मरहबा सल्ले-अल्ला कूचा-ए-यार आ ही गया