दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया
सागर ने क़तरे क़तरों ने सागर बिना दिया

बे-ताबियों ने दिल की ब-उम्मीदर-शरह-ए-शौक़
उस जाँ-नवाज़ को भी सितम-गर बना दिया

पहली सी लज़्ज़तें नहीं अब दर्द-ए-इश्क़ में
क्यूँ दिल को मैं ने ज़ुल्म का ख़ू-गर बना दिया

कैफियत-ए-शबाब से माज़ूर कुछ हुए
कुछ आशिकों ने भी उन्हें ख़ुद-सर बना दिया

‘सेहर’ उस निगाह-ए-मस्त पे क़ुर्बान क्यूँ न हो
जिस के करम ने ज़िंदा क़लंदर बना दिया

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