तिरा वहशी कुछ आगे है जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ से
कहीं दस्त ओ गिरेबाँ हो न आबादी बयाबाँ से

इलाही जज़्बा-ए-दिल का असर इतना न हो उन पर
परेशाँ वो न हो जाएँ मिरे हाल-ए-परेशाँ से

क़यामत है वो आए और आते ही हुए वापस
ये आसार-ए-सहर पैदा हुए शाम-ए-ग़रीबाँ से

नज़र वाले समझ जाएँ न अर्श और फ़र्श की निस्बत
तिरा दामन न छू जाए कहीं मेरे गिरेबाँ से

उरूज-ए-जोश-ए-वहशत ‘सेहर’ है ये रोज़-ए-रौशन में
नज़र आते हैं तारे रोज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ से

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