अर्ज़े-वाजिब से रक्खा बे-नियाज़
मुझको ले डूबी मेरी खुद्दारियां

उनसे मिलता है, क़नाअ़त का सबक़
एक नज़मत है, मेरी नादारियां

कोशिशे-इज़हारे-ग़म भी ज़ब्त भी
आह यह मजबूरियाँ, मुख्तारियां

‘अर्श’ क्यों हँसता है तू झूठी हँसी
किससे सीखी हैं यह दुनियादारियाँ?

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