1.
मैं हूँ उच्छृंखल विकट कान्ति की ज्वाला!
मैं हूँ प्रचंड मैं दुर्दमनीय विशाला!!

मैं हूँ विद्रोही की आँखों की लाली;
हूँ सर्वनाश-मदिरा की तीखी-प्याली!
मैं अन्ययी-हित विष की तीक्ष्ण भुजाली;
मैं विश्व-विजयिनी महाशक्ति हूँ काली!
मैं क्रोधमयी रण-चंडी हूँ विकराली;
अपनी मादकता में रहती मतवाली!

है मेरा शोणित-रंजित साज निराला!
मैं हूँ उच्छृंखल विकट क्रान्ति की ज्वाला!!

2.

मैं हूँ विध्वंसक महाप्रलय की ज्वाला!
अंतक अनन्त मैं हूँ भीषण विकराला!!

मैं विहारिणी हूँ विश्व-वेदना-वन की;
मैं कुटिल-वासना हूँ शंकर के मन की!
मैं नाश सृष्टि का, सृष्टि नाश की नूतन;
मैं मृत्यु-मरण मैं हूँ नव-जीवन-यौवन!
मैं विप्लवकारी के अंतर की आशा;
मैं विभीषिका, रण-तांडव रक्त-पिपासा!

मैं हूँ ”विराट कवि“ के भावों की माला!
मैं हूँ विध्वंसक महाप्रलय की ज्वाला!!

3.

मैं हूँ हर के कंठस्थ जहर की ज्वाला!
मैं हूँ भुजंग-वासुकि का क्रोध-कसाला!!

झुलसा दूँगी मैं आज हृदय पापी का;
दानव नृशंस, पर-पीड़क सन्तापी का!
मैं भस्म करूँगी जग का वैभव सुन्दर;
मैं रोके रुक न सकूँगी महाभयंकर!
मैं लहू चूस लूँगी लोलुप-सी तन का;
मैं हूँ भीषण-उन्माद काल के मन का!

मैं फूँक करूँगी आज विश्व को काला!
मैं हूँ हर के कंठस्थ ज़हर की ज्वाला!!

4.

मैं हूँ स्वतंत्रता की चिर-उज्वल ज्वाला!
है अमर-शानित-दायक मेरा उजियाला!!

मैं स्वर्ग-लोक का वैभव हूँ चिर-सुन्दर;
मैं कृष्ण-बाँसुरी का हूँ गीत मनोहर!
मैं देश-भक्त की वर-देवी हूँ पावन;
मैं सुख-सुषमा की अक्षय-राशि सुहावन;
मैं हूँ ज्वालाओं की सुहागिनी रानी;
है मेरी अकथ अलौकिक पुण्य-कहानी!

रवि-शशि हैं मेरे सुभग-कंठ की माला!
मैं हूँ स्वतंत्रता की चिर-उज्वल ज्वाला!!

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