ये क़बा-ए-कुहना उतार दो न सुबुक हो चश्म-ए-नियाज़ में
के जगह जगह से है कुहनगी का असर लिबास-ए-मजाज़ में
है फिर इक सहर की हमाहमी तप-ओ-ताब-ए-सीना-ए-राज़ में
दिल-ए-शब अभी से धड़क रहा है सुकूत-ए-शाम-ए-हिजाज़ में
किसी संग-ए-राह ने ये कहा के सुन ऐ मुसाफ़िर-ए-ज़िंदगी
तेरे पा-ए-शौक़ की आफ़ियत है इसी नशेब-ओ-फ़राज़ में
अरे नाल-ए-दिल-ए-बेकसाँ तू पयम्बरों की दुआ नहीं
सर-ए-अर्श तेरी जगह कहाँ उतर आ क़ुलूब-ए-गुदाज़ में
जो यही मिजाज़ है हुस्न का तो किसे हो इश्क़ का हौसला
नज़र आ रहा है किसी का दिल मुझे शम्मा तेरे गुदाज़ में
ये ख़ुदी के आरिज़-ए-मह-वशाँ में भी महव-ए-ख़ुद-निगरी रहा
मेरा आईना के रचा हुआ था मज़ाक-ए-आईना-साज़ में
तेरे गेसुओं की दास्ताँ पे नहीं है ख़त्म ये दास्ताँ
के जुनूँ के और भी सिलसिले हैं हवस की उम्र-ए-दराज़ में
न फ़रोग़-ए-हुस्न है मुज़्महिल न मिजाज़-ए-इश्क़ है मोतदिल
वही एक शोरिश-ए-आब-ओ-गिल कहीं सोज़ में कहीं साज़ में
है फ़रोग़ रू-ए-अयाज़ से ताप-ओ-ताब-ए-सीना-ए-ग़ज़नवी
ताप-ओ-ताब सीना-ए-ग़ज़नवी की लहक है रू-ए-अयाज़ में
हैं निज़ाम-ए-शाम-ओ-सहर में भी इसी कशमकश की अलामतें
जो हिजाब ओ नूर की कश्मकश है ज़मीर-ए-नाज़-ओ-नियाज़ में
ये नमाज़-ए-सेहन-ए-हरम नहीं ये सलात-ए-कूचा-ए-इश्क़ है
न दुआ का होश सुजूद में अन अदब की शर्त नमाज़ में
जो खड़े हैं आलम-ए-ग़ौर में वो खड़े हैं अलाम-ए-ग़ौर में
जो झुके हुए हैं नमाज़ में वो झुके हुए हैं नमाज़ में
ये वो ज़िंदगी है ‘जमील’ से भी जो आज तक न सँवर सकी
जो उलझ गया सो उलझ गया ख़म-ओ-पेच-ए-ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में