प्रेमचन्द

मुफ़लिसी थी तो उसमें भी एक शान थी
कुछ न था, कुछ न होने पे भी आन थी

चोट खाती गई, चोट करती गई
ज़िन्दगी किस क़दर मर्द मैदान थी

जो बज़ाहिर शिकस्त-सा इक साज़ था
वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज़ था

राह में गिरते-पड़ते सँभलते हुए
साम्राजी से तेवर बदलते हुए

आ गए ज़िन्दगी के नए मोड़ पर
मौत के रास्ते से टहलते हुए

बनके बादल उठे, देश पर छा गए
प्रेम रस, सूखे खेतों पे बरसा गए

अब वो जनता की सम्पत हैं, धनपत नहीं
सिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं

लाखों दिल एक हों जिसमें वो प्रेम है
दो दिलों की मुहब्बत मुहब्बत नहीं

अपने सन्देश से सबको चौंका दिया
प्रेम पे प्रेम का अर्थ समझा दिया

फ़र्द था, फ़र्द से कारवाँ बन गया
एक था, एक से इक जहाँ बन गया

ऐ बनारस तिरा एक मुश्त-गुबार
उठ के मेमारे-हिन्दुस्ताँ  बन गया

मरने वाले के जीने का अंदाज़ देख
देख काशी की मिट्टी का एज़ाज़ देख ।

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