हम निगाहे हुस्न से लेकर मुहब्बत की किरन
मौत पर भी जिन्दगी की रोशनी डाला किये

बज्म़ में उन मस्त-मस्त आँखों का आलम  अलअमाँ
जाने कितने मैकदे उभरा किये डूबा किये

मौत इक जानिब खड़ी थी एक जानिब जिन्दगी
हम दो राहे पर खड़े उनकी अदा देखा किये

गौर से सुनकर मिरी तनहाइयों की दास्ताँ
सर झुका कर देर तक क्या जाने क्या सोचा किये

कितनी आँखें रात रोयी है तुम्हारी याद में
कितने पैमाने तुम्हारे नाम पर छलका किये

ऐसे आला जर्फ  भी थे पीने वालों में ’नजीर’
शाम को लेकर जरा सी सुबह तक बहका किये

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