ये किसने गला घोंट दिया जिन्दादिली का
चेहरे पे हँसी है कि जनाजा है हँसी का

हर हुस्न में उस हुस्न की हल्की सी झलक है
दीदार का हक मुझको है जल्वा हो किसी का

रक्साँ है कोई हूर कि लहराती है सहबा
उड़ना कोई देखे मिरे शीशे की परी का

जब रात गले मिलके बिछड़ती है सहर [3] से
याद आता है मंजर तिरी रूखसत की घड़ी का

उन आँखों के पैमानों से छलकी जो जरा सी
मैखाने में होश उड़ गया शीशे की परी का

रूस्वा है ’नजीर’ अपने ही बुतखाने की हद में
दीवाना अगर है तो बनारस की गली का

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