हरदम मिरी अजल मिरे सर पर खड़ी रही
निगरानि-ऐ-हयात  भी कितनी कड़ी रही

पीछा न उनकी जुल्फें परीशाँ से छुट सका
उनकी बला भी मरे ही पीछे पड़ी रही

फुरकत की शब अदाये तमन्ना न पूछिये
इक हूर थी जो सर को झुकाये खड़ी रही

मिलते थे तो चैन न मिलता था बिन मिले
दिल में पड़ी लकीर तो बरसों पड़ी रही

हसरत के देने वाले अमानत सहेज ले
जैसी मिली थी वैसी की वैसी पड़ी रही

मैख्वारों  में वो हज़रते ज़ाहिद न थे ’नजीर’
रिन्दों में हाथ बॉंध के तोबा खड़ी रही

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