खमें मेहराबे हरम भी खमें अब्र तो नहीं
कहीं काबे में भी काशी क सनम तू तो नहीं
तिरे आँचल में गमकती हुई क्या शै है बहार
उनके गेसू की चुराई हुई खुशबू तो नहीं
कहते हैं कतरा-ऐ-शबनम तो नहीं
रात की आँख से टपका हुआ आँसू तो नहीं
इसको तो चाहिए इक उम्र सँवरने के लिए
जिन्दगी है तिरा उलझा हुआ गेसू तो नहीं
हिन्दुओं को तो यकीं है कि मुसलमाँ है ’नजीर’
कुछ मुसलमाँ जिन्हें शक है कि हिन्दू तो नहीं