मेरी तकलीफ को राहत की कोई शाम न दो
मैं मुसीबत में पला हूँ मुझे आराम न दो
बोलना जब नहीं आता तो इशारा कैसा
जब जबाँ चुप है तो नजरों से भी पैगाम न दो
क्या करोगे मुझे जब दागे जुदाई देकर
जिन्दगी भर की मुहब्बत का यह ईनाम न दो
अब निकल आया हूँ मैं दैरो हरम से आगे
दावते कुफ्र न दो, दावते इस्लाम न दो
हर खता को नजर अन्दाज किये जाओ ’नजीर’
जान दे दो मगर अपनों के सर इल्जाम न दो
बुझा है दिल भरी महफिल को रौशनी देकर
मरूँगा भी तो हजारों को जिन्दगी देकर
कदम-कदम पे रहे अपनी आबरू का खयाल
गई तो हाथ न आयेगी जान भी देकर
बुजुर्गवार ने इसके लिए तो कुछ न कहा
गये हैं मुझको दुआ-ए-सलामती देकर
हमारी तल्ख-नवाई को मौत आ न सकी
किसी ने देख लिया हमको जहर भी देकर
न रस्मे दोस्ती उठ जाये सारी दुनिया से
उठा न बज्म से इल्जामे दुश्मनी देकर
तिरे सिवा कोई कीमत चुका नहीं सकता
लिया है गम तिरा दो नयन की खुशी देकर
चमक रही थी सितारों से रात की चुँदरी
उषा न छीन ली इक लाल ओढ़नी देकर
उधार लेंगे न दुनिया से कोई चीज ’नजीर’
कफन भी लूँगा अगर मैं तो जिन्दगी देकर