खेत में जो चुग रही थी, कैद में घबरा गई
गाँव की मैना जो आई शहर में दुबरा गई

सेंक देता था जो जाड़े में गरीबों के बदन
आज वह सूरज भी इक दीवार उठकर खा गई

कैसी-कैसी शख्सियत अलगाववादी हो गई
कैसे-कैसे जेहन को फिरकापरस्ती खा गई

ऐसी रानी जिसका जी लगता न था बनवास में
इक मुहब्बत की बदौलत उसको कुटिया भा गई

एक पल में उम्र भर का साथ छुटा है ’नजीर’
बदगुमानी जिन्दगी भर की कमाई खा गई

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