विद्रुम औ’ मरकत की छाया,
सोने-चाँदी का सूर्यातप;
हिम-परिमल की रेशमी वायु,
शत-रत्न-छाय, खग-चित्रित नभ!
पतझड़ के कृश, पीले तन पर
पल्लवित तरुण लावण्य-लोक;
शीतल हरीतिमा की ज्वाला
दिशि-दिशि फैली कोमलालोक!
आह्लाद, प्रेम औ’ यौवन का
नव स्वर्ग : सद्य सौन्दर्य-सृष्टि;
मंजरित प्रकृति, मुकुलित दिगन्त,
कूजन-गुंजन की व्योम सृष्टि!
–लो, चित्रशलभ-सी, पंख खोल
उड़ने को है कुसुमित घाटी,–
यह है अल्मोड़े का वसन्त,
खिल पड़ीं निखिल पर्वत-पाटी!
रचनाकाल: मई’१९३५